नार्को टेस्ट क्या होता है - जब कोई अपराधी या संदिग्ध अपना अपराध कबूल नहीं करता तो पुलिस उस अपराधी का नार्को टेस्ट करवाती है।
नार्को टेस्ट एक प्रकार की जांच होती है जो डॉक्टरों की टीम और पुलिस की मौजूदगी में होती है।
नार्को टेस्ट में अपराधी को कुछ इंजेक्शन लगाए जाते हैं जिसमें वो ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है जिसमें वो ना तो पूरी तरह होश में रहता है और ना ही बेहोश होता है।
इस स्थिति में दिमाग चालाकियां नहीं कर पाता और सच बोलता है।
नार्को टेस्ट कैसे किया जाता है
नार्को टेस्ट के लिए अपराधी को सोडियम पेंटोथल (Sodium Pentothal) नामक ड्रग का इंजेक्शन लगाया जाता है। इस ड्रग को ट्रुथ सीरम (Truth Serum) भी कहते हैं।
इसको लगाने के बाद अपराधी का अपने दिमाग से नियंत्रण खत्म हो जाता है और वो किसी भी बात को घुमा फिरा कर या मैनिपुलेट करके नहीं बता पाता।
वह सिर्फ वही बता पाता है जो घटना हुई थी क्योंकि झूट बोलने के लिए दिमाग पर जोर लगाना पड़ता है यह इंजेक्शन दिमाग से नियंत्रण खत्म कर देती है।
इंजेक्शन लगने के बाद अपराधी आधी मूर्छित और आधे होश में रहता है।
इस स्थिति में आने पर डॉक्टरों का पैनल, पुलिस टीम और विशेषज्ञ की निगरानी में अपराधी से सवाल पूछे जाते हैं और पूरा घटनाक्रम रिकॉर्ड किया जाता है।
नार्को टेस्ट से पहले क्या तैयारी की जाती है
नार्को टेस्ट से पहले बहुत सी तैयारियां करनी पड़ती हैं। नार्को टेस्ट के पहले अपराधी की सहमति जरूरी होती है, इसके अलावा कोर्ट का ऑर्डर भी लेना पड़ता है।
अपराधी की स्वास्थ जांच होती है और जांचा जाता है की क्या अपराधी नार्को टेस्ट के लिए शारीरिक तौर पर फिट है की नहीं।
नार्को टेस्ट में डॉक्टरों की एक टीम होती है जो अपराधी के स्वास्थ को देखते हुए ड्रग की डोज तय करती है क्योंकि डोज की मात्रा अधिक होने पर अपराधी कोमा में जा सकता है और डोज की मात्रा कम होने पर वह झूठ बोल सकता है।
नार्को टेस्ट में पूछे जानें वाले प्रश्र पहले से तैयार कर लिए जाते हैं और फिर इन प्रश्नों को घुमा फिरा कर पूछा जाता है।
इंजेक्शन लगाने के बाद अपराधी को पहाड़, नदी, फूल पत्ती आदि की तस्वीर दिखा कर प्रश्र पूछे जाते हैं और जब ये विश्वास हो जाता है की अपराधी का दिमाग से नियंत्रण खो चुका है फिर उसके बाद अपराध से जुड़े प्रश्र पूछने शुरू किए जाते हैं।
इसमें अपराधी के शरीर की प्रतिक्रिया भी नोट की जाती है।
क्या नार्को टेस्ट को सबूत माना जाता है
नार्को टेस्ट के जरिए पुलिस किसी भी अपराधी को सजा नहीं दिलवा सकती। नार्को टेस्ट को सबूत के तौर पर नहीं माना जाता।
नार्को टेस्ट से पुलिस सच पता करती है और फिर उस सच के जरिए घटनास्थल से सबूत इकट्ठा करके उसे आरोपी के खिलाफ कोर्ट में पेश करती है।
नार्को टेस्ट खुद एक सबूत नहीं होता बल्कि नार्को टेस्ट सबूत इकट्ठा करने का एक जरिया होता है।
नार्को टेस्ट की सहायता से पुलिस को सारे सबूत खुद ही जुटाने होते हैं।
नार्को टेस्ट को सबूत इसलिए भी नहीं माना जाता क्योंकि जो बहुत शातिर अपराधी होते हैं वो नार्को टेस्ट से भी बच जाते हैं।
नार्को टेस्ट कोई भी सामान्य आदमी नहीं करवा सकता इसके लिए कोर्ट और पुलिस की परमिशन जरूरी होती है।
पॉलीग्राफी टेस्ट और नार्को टेस्ट में क्या अंतर है
पॉलीग्राफी टेस्ट में झूठ को हमारे शरीर की प्रतिक्रिया द्वारा पकड़ा जाता है।
जैसे पॉलीग्राफी टेस्ट में अपराधी के शरीर को मशीनों से जोड़ दिया जाता है और जवाब देते समय अपराधी की शारीरिक गतिविधि नोट की जाती है।
जैसे झूठ बोलने के समय एक सामान्य आदमी की हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, सांस लेने की गति असामान्य हो जाती है, पसीना आने लगता है, ब्लड प्रेशर में बदलाव आने लगते हैं और अन्य शारीरिक बदलाव आते हैं।
मशीन इन्हीं सब बदलावों को नोट करके रिजल्ट बताती है। शातिर अपराधी इससे बहुत आसानी से बच जाते हैं।
नार्को टेस्ट में इंजेक्शन लगा कर अपराधी से प्रश्न पूछा जाता है। इसमें अपराधी झूठ बोलने की अवस्था में नहीं हो पाता और अधिकतर मामलों में सच बाहर आ जाता है।
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